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प्रभाती / रघुवीर सहाय
Kavita Kosh से
आया प्रभात
चन्दा जग से कर चुका बात
गिन-गिन जिनको थी कटी किसी की दीर्घ रात
अनगिन किरणों की भीड़भाड़ से भूल गए
पथ, और खो गए, वे तारे।
अब स्वप्नलोक
के वे अविकल शीतल, अशोक
पल जो अब तक थे फैल-फैल कर रहे रोक
गतिवान समय की तेज़ चाल
अपने जीवन की क्षण-भंगुरता से हारे।
जागे जन-जन,
ज्योतिर्मय हो दिन का क्षण-क्षण
ओ स्वप्नप्रिये, उन्मीलित कर दे आलिंगन।
इस गरम सुबह, तपती दुपहर
में निकल पड़े।
श्रमजीवी, धरती के प्यारे।