भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रभुजी अब जनि मोंहि बिसारो / धरनीदास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रभुजी अब जनि मोंहि बिसारो।
असरन-सरन अधम-जन-तारन, जुग जुग विरद तिहारो।
जहँ जहँ जनम करम बसि पाय, तहँ अरूझे रस खारे।
पांचहु के परपंच भुलानो, धरेउ न ध्यान अधारो।
अंधगर्भ दस मास निरंतर, नखसिख सुरति सँभारो।
मंजा मुत्र अग्नि मल कृम जहँ सहजै तहँ प्रतिपारो।
दीजै दरस दयाल दया करि, ऐगुन गुन न बिचारो।
धरनी भजि आयो सरनागति, तजि लज्जा कुल गारो।