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प्रवासी विरह / अमर सिंह रमण

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रे मुन्ना भेंट ना होइहैं हमार।
किरवा काटिस मुड़िया में हम भाग अइली परदेस,
अपने देश में अकड़त रहिली यहाँ कुली का भेस।
सात समन्दर पार हो अइली छूटा भारत देश।।
रे मुन्ना भेंट ना होइहैं हमार।।

भैसी चरावत दूध खात और खेलत रहत कबड्डी।
आकर पड़ गया भक्खड़ मा यहाँ टूट गई मोरी हड्डी।
देह की पीरा सही ना जाए, दाना हो गई मिट्टी।।
रे मुन्ना भेंट ना होइहैं हमार।।

श्रीराम टापू के बदले पकड़ा हमें दलाल,
यहाँ तो चींटी-चूँटा काटे बुरा हो गया हाल।
दिन-भर मेहनत करते करते सूख गया मोरा गाल।।
रे मुन्ना भेंट ना होइहैं हमार।।

भाई छूट गइल, बाप भी छूटा औ छूटी महतारी
लड़कन-बालन सब कुछ छूटा, छूट गई मोरी मेहरी
धोती कुरता सब कुछ छूटा बदन पर रह गई लुंगी।।
रे मुन्ना भेंट ना होइहैं हमार।।