प्रश्न / संजीव कुमार
पता नहीं
सच जानने के लिए
कितना परिश्रम उचित है,
यह भी पता नहीं
झूठ बोलने के लिए
कितना अपेक्षित है चातुर्य?
पता नहीं
मूर्ख शासक
धूर्त अहलकार से क्यों करता है परामर्श,
सभासद सुझाव से क्यों हो जाते हैं
अप्रसन्न,
एक जैसे लोग क्यों मिल जाते हैं
एक जैसे लोगों से,
यह भी पता नहीं
अलग अलग लोग भी क्यों दिखते हैं
एक जैसे, अलग अलग समयों पर।
पता नहीं
बुद्धिमान जिन शब्दों से
करते हैं चाटुकारिता
उनसे और क्या क्या
बनाया जा सकता था,
नट, बाजीगरों को
क्यों मान लिया जाता है नायक?
यह भी पता नहीं
जो करते हैं निर्माण देश का
उन्हें क्यों नहीं करता है याद देश
कोई क्यों नहीं अपनाता उनका भेष?
पता नहीं
उन्हीं अक्षरों से
जिनसे सच बनता है
कैसे बन जाता है झूठ,
क्यों चल जाता है खोटा सिक्का,
कहां रह जाते हैं खरे लोग,
ओछे विचारों से कैसे बन जाता है जनतंत्र
यह भी पता नहीं
दुष्ट कैसे विजयी होते हैं,
कैसे हराते हैं दुष्टों को दुष्ट,
भले लोगों में कैसे पनप जाता है
जीत जाने का भय,
हारी हुई जनता क्यों थिरकने लगती है
विजय गीत की तान पर?