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प्रश्न ही प्रश्न बियाबान में हैं / लाला जगदलपुरी
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हम-तुम इतने उत्थान में हैं
भूमि से परे, आसमान में हैं।
तारे भी उतने क्या होंगे,
दर्द-गम जितने इंसान में हैं।
सोना उगल रही है माटी,
क्योंकि हम सुनहले विहान में हैं।
मोम तो जल जल कर गल जाता,
ठोस जो गुण हैं, पाषाण में हैं।
मौत से जूझ रहे हैं कुछ,
तो कुछ की नज़रें सामान में हैं।
मुर्दों का कमाल तो देखो,
जीवित लोग श्मशान में हैं।
मन में बैठा है कोलाहल,
और हम बैठे सुनसान में हैं।
किसने कितना कैसे चूसा,
प्रश्न ही प्रश्न बियाबन में हैं।
सोचता हूँ, उनका क्या होगा?
मर्द जो अपने ईमान में हैं।