प्राची में उषा मुस्काये / विमल राजस्थानी
मिट्टी का कमजोर पींजरा, खुले पड़े दस द्वार
बंदी जीवन, बिंधा-बिंधा मन, अब तो पंख पसार
रे पंछी ! उड़ जा पंख पसार
रे पंछी ! उड़ जा पंख पसार
माया ठगिनी जीत न पाये
सुलझा मन फिर उलझ न जाये
सुख-दुख की यह आँख-मिचैनी
अब ने और मन को भरमाये
रवि का मंगल कलश सजाये, प्राची में ऊषा मुस्काये
स्वागत में बाँहें फैलाये ले किरणों का हार
रे पंछी ! उड़ जा पंख पसार
रे पंछी ! उड़ जा पंख पसार
युग बीते यह जीवन जीते
अमिय-गरल की घूँटें पीते
जाने कितनी बार खुले मुख-
में हैं डाले गये पलीते
लाखों बार गड़ा धरती में, तिल-तिल गला-सड़ा धरती में
इस जलने-गलने से अपने को इस बार उबार
रे पंछी ! उड़ जा पंख पसार
रे पंछी ! उड़ जा पंख पसार
किसे पुकारे ‘मेरा-मेरा’
कोई नहीं कहीं भी तेरा
बीते कल्प, लगाते फेरा
उड़-उड़ फिर-फिर लिया बसेरा
खोल मुँदी अन्तर की आँखें, खोल-खोल सतरंगी पाँखें
भर उड़ान, निस्सीम व्योम को चीर, निकल जा पार
रे पंछी ! उड़ जा पंख पसार
रे पंछी ! उड़ जा पंख पसार
बार-बार अवसर आया है
उड़-उड़कर फिर-फिर आया है
आकर रोया-पछताया है
घेरे रही मोह-माया है
यह अन्तिम अवसर मत खोना, जनम-मरण फिर पड़े न ढोना
बीज कर्म का पड़े न बोना, उड़ जा अन्तिम बार
रे पंछी ! उड़ जा पंख पसार
रे पंछी ! उड़ जा पंख पसार