प्राचीन संस्कृति को अंतिम बुके / लीलाधर जगूड़ी
पारंपरिक भारतीय कलियों और फूलों की ख़ुशबुएँ
पांडवों की तरह स्वर्गारोहण की सदिच्छा से हिमालय की
ओर चली गई हैं। क्योंकि जिन फूलों का भारतीयकरण
किया गया है उनमें गज़ब की बेशर्मी, हठधर्मी और बिना
ख़ुशबू की कई दिन लंबी ताज़गी है
फिर भी गांधी मैदान में केवल एक दिन की राजनीति में
लगभग पाँच क्विंटल पारंपरिक भारतीय ख़ुशबूदार
फूल कुचले गए। धार्मिक कारणों से छ: हज़ार टन फूल
नदियों में बहाए गए। मांगलिक अवसरों पर
जिन हज़ारों फूलों की बलि दी गई, उनके विसर्जन
की भी कोई ठीक-ठाक व्यवस्था नहीं देखी मैंने
फूलों की अंतिम उपयोगिता हमारी ख़ुशहाली और
आनंद में कुचले जाने की है। हमारा जन्म-मरण
और समर्पण, पुष्प श्रृंगार और पुष्प संहार के बिना
अधूरा है
हो सकता है दस हज़ार टन से कुछ अधिक भारतीय फूल
इस साल सामाजिक या आर्थिक कारणों से नष्ट या सार्थक
हुए हों। फिर भी भारत के मूल माली फूलों पर नहीं
अपनी माली हालत पर रोए। उनके चारों ओर मक्खियाँ
भिनभिनाती रहीं। मधुमक्खियां दूर कहीं अपना शोक-
गीत गाती रहीं अशोक की तरह
पारंपरिक भारतीय फूलों के बिना अब कहां जाएंगी ये
मधुमक्खियाँ? क्योंकि एक मधुमक्खी एक ग्राम शहद
बनाने के लिए लगभग पाँच हज़ार प्रकार के फूलों पर
मधुकरी करने जाती है। बीस हज़ार प्रजाति की भारतीय
मधुमक्खियाँ उदास हैं। इतनी सारी उदासी प्रतिदिन
तेरह हज़ार किलोग्राम शहद का नुकसान कर डालती है
यानि हर बसंत में इक्कीस लाख रुपए की प्रतिदिन हानि…
सखि बसंत आया
सोटों जैसे खिले हुए निर्गंध बुके लाया।