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प्राण तुम्हारी पद-रज फूली / अज्ञेय

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 प्राण, तुम्हारी पद-रज फूली
मुझ को कंचन हुई तुम्हारे चंल चरणों की यह धूली।
आयी थी तो जाना भी था, फिर भी आओगी, दुख किस का?
एक बार जब दृष्टि-करों रसे पद-चिह्नों की रेखा छू ली।

वाक्य अर्थ का हो प्रत्याशी, गीत शब्द का कब अभिलाषी?
अन्तर में पराग-सी छायी है स्मृतियों की आशा-धूली।
प्राण, तुम्हारी पद-रज फूली।

1935