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प्राणों में साकेत / रामस्वरूप 'सिन्दूर'

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मैं अपने ही अधर चूम लूँ दरपन में!
यह कैसा पानी बरसा इस सावन में!

अधरों पर धर गया बाँसुरी लीलाधर-बादल कोई,
मैं जितना जागा-जागा, संसृति उतनी सोयी-सोयी,
बिजली कौंधे, आग लगे चन्दन-वन में!
यह कैसा पानी बरसा इस सावन में!

आँखों की झील में तैरता सपना एक शिकारे-सा,
तन की घाटी में बजता है भीगा मन इकतारे-सा,
प्राणों में साकेत, प्राण वृन्दावन में!
यह कैसा पानी बरसा इस सावन में!

खारे सागर में उभरी हैं तल-तक डूबी सरिताएं,
महामौन में अनुगुंजित आदिम यौवन की कविताएं,
होना है नौका-विहार, जलप्लावन में!
यह कैसा पानी बरसा इस सावन में!