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प्रार्थना / चंद्र रेखा ढडवाल

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पथरीली ज़मीन और धूप के बावजूद
आकाश देखते हुए अंकुर
सब चीज़ों का भविष्य नहीं
कुछ को चाहिए बूँद-बूँद धरती चूमती
बारिश का सम्बल
तन सहलाती कोमल मिट्टी का सहचर्य
और धैर्य स्याह अंधकार से
रोशनी में आने की प्रतीक्षा का
यह सम्बल/सहचर्य/धैर्य
भिंची मुठ्ठियों में समेट कर रखते हो
तो रेत के गुलाल से होली की तैयारी में
ढाँप लो आँख / कान
तुम्हारे लिए प्रार्थना मेरी विवशता तब भी
पतन के आख़िरी छोर तक
मैं जिसे बुदबुदाऊँगी
खुला रखना मुँह
ताकि रेत का स्वाद तुम्हें बाँधे रखे
पंच तत्वों में से किसी एक के प्रति
बँधी रहे तुम्हारी आस्था
जो खींच ले जाए तुम्हें
फिर जीवन की ओर
जहाँ सम्बल/ सहचर्य और धैर्य खोजते अंकुर
तुम्हारे दृष्टि पथ के
एकाकी पाहुन हो जाएँ...