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प्रिय, शेष बहुत है रात अभी मत जाओ / हरिवंशराय बच्चन

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प्रिय, शेष बहुत है रात अभी मत जाओ।

अरमानों की एक निशा में
होती हैं कै घड़ियाँ,
आग दबा रक्खी है मैंने
जो छूटीं फुलझरियाँ,
मेरी सीमित भाग्य परिधि को
और करो मत छोटी,
प्रिय, शेष बहुत है रात अभी मत जाओ।

अधर पुटों में बंद अभी तक
थी अधरों की वाणी,
'हाँ-ना' से मुखरित हो पाई
किसकी प्रणय कहानी,
सिर्फ भूमिका थी जो कुछ
संकोच भरे पल बोले,
प्रिय, शेष बहुत है बात अभी मत जाओ;

प्रिय, शेष बहुत है रात अभी मत जाओ।

शिथिल पड़ी है नभ की बाँहों
में रजनी की काया,
चांद चांदनी की मदिरा में
है डूबा, भरमाया,
अलि अब तक भुले-भुले-से
रस-भीनी गलियों में,
प्रिय, मौन खड़े जलजात अभी मत जाओ;

प्रिय, शेष बहुत है रात अभी मत जाओ।

रात बुझाएगी सच-सपने
की अनबूझ पहेली,
किसी तरह दिन बहलाता है
सबके प्राण, सहेली,
तारों के झँपने तक अपने
मन को दृढ़ कर लूंगा,
प्रिय, दूर बहुत है प्रात अभी मत जाओ;

प्रिय, शेष बहुत है रात अभी मत जाओ।