प्रिये तनिक बाहर तो आओ / अज्ञेय
प्रिये, तनिक बाहर तो आओ, तुम्हें सान्ध्य-तारा दिखलाऊँ!
रुष्ट प्रतीची के दीवट पर करुण प्रणय का दीप जला है-
लिये अलक्षित अनुनय-अंजलि किसे मनाने आज चला है?
प्रिये, इधर तो देखो, तुम से इस का उत्तर पाऊँ!
तुम्हें सान्ध्य-तारा दिखलाऊँ!
अरुण सकल आकाश किन्तु उस में है तारा दीप्त अकेला।
अनझिप मेरी भी मनुहार, यद्यपि तुम मूर्तिमती अवहेला!
अपलक-नयन इसी विस्मय में कैसे तुम्हें मनाऊँ!
तुम्हें सान्ध्य-तारा दिखलाऊँ!
नभ का रोष बुझा कर तत्क्षण डूब जाएगा सन्ध्या-तारा।
जाते पर अपने प्रतिबिम्बों से भर जाएगा नभ सारा!|
ऐसी क्रिया प्रणय अपने में भी क्या तुम्हें बताऊँ?
तुम्हें सान्ध्य-तारा दिखलाऊँ!
तुम अनुकूलो तो मैं तत्क्षण चरणों में से शीश हटाऊँ-
सम्मुख हो कर अगणित गीतों की मालाएँ तुम्हें पिन्हाऊँ
तुम्हें सान्ध्य-तारा दिखलाऊँ!
मुलतान जेल, 29 जनवरी, 1934