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प्रीति की बड़ी अनूठी रीति / स्वामी सनातनदेव

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राग कालिंगड़ा, तीन ताल 16.6.1974

प्रीति की बड़ी अनूठी रीति।
रीति-भीति कोउ रहै न हियमें प्रगटै जब प्रीतम की प्रीति।
प्रीति पाय पुनि चहै न सो कछु, हियसों भगै सकल भव-भीति॥
भीति भगै अरु लगै हिये में प्रिय के दरस-परस की र्इ्रति॥1॥
ईति न रहै कोउ अग-जगकी, प्रीतम-प्रीति बनै निज नीति।
नीति-रीति कोउ और न भावै, अनुदिन बाढ़े पावन प्रीति॥2॥
प्रीति पाय चाहै न और कछु, भुक्ति-मुक्ति दोउ लागें ईति।
ईति-भीति सब त्यागि निरन्तर गावै रुचिसों प्रिय-गुनगीति॥3॥
गीति गाय प्रिय रसिक रिझावै यही बड़ी जीवन की जीति।
जीति-जीति हूँ सकल वासना, चहै एक प्रियतम की प्रीति॥4॥