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प्रीति की बात कहो न कहिये / स्वामी सनातनदेव
Kavita Kosh से
राग आसावरी, तीन ताल 1.8.1974
प्रीति की बात कहो का कहिये।
जाके बिना न जीवन जीवन, जडवत् जग में रहिये॥
कहा होत धन-जन हूँ पाये, भोग-रोग ही सहिये।
जाको अन्त होत ता सुखकों ‘सुख’ हूँ कैसे कहिये॥1॥
साँचे सुख तो है श्रीहरि ही, उन बिनु सुख किन पइये।
जाकों कहहिं ‘विषय-सुख’ सोहू वृथा मोह ही गहिये॥2॥
अपने के अपने हैं प्रीतम, उनही के सँग रहिये।
इत-उतके सपने में फँसि क्यों वृथा विरह-दुख सहिये॥3॥
प्रीतम तो हैं सदा मिले, तो हूँ मिलिवे ललचइये।
मिले हुए की मिलन-लगन ही प्रीति-सुधा रस कहिये॥4॥
यहाँ मिलन अरु बिछुरन दोउन में रस ही रस पइये।
रस में बूडन मिलन और उछरन ही बिछुरन गहिये॥5॥
रस के मिलन और बिछुरन दोउन में रस सरसइये।
यों रस पाय स्वयं रसमय ह्वै रसनिधि ही ह्वै रहिये॥6॥