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प्रेम-गीत ऐसा लिख पाऊँगा / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

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जाने कब मैं
प्रेम-गीत ऐसा लिख पाऊँगा

जिसका छंद गठन हो
जैसे सुगठित कोमल देह तुम्हारी
जिसकी लय ऐसी हो
जैसे पग-पग लचके कमर तुम्हारी
वही खनक हो जिसके शब्दों में
हैं जैसे बोल तुम्हारे
भाव सुकोमल हों जिसमें
जैसे ये लाल कपोल तुम्हारे

जिसके बंधों से मैं
तुम्हें बाँध कर लाउँगा

चंदन तन सी ठंडक
जिसका लेखन तपते तन को देगा
किंतु मनन जिसका
तपती साँसों की गर्मी मन को देगा
अधरों की रेशमी छुवन सा
नाज़ुक होगा जिसका वाचन
तुमको बाहों में भरने सा
अनुभव होगा जिसका गायन

याद जिसे कर
मैं तुम में
घुलकर खो जाउँगा