प्रेम-डगर पर / विमल राजस्थानी
छिटक रही थी चारु चाँदनी, मंद पड़े थे तारे
पल्लव-शय्या पर सोया था ‘वन’ कुटिया के द्वारे
निरख रही थी निर्निमेष ‘आशा’ बैठी सिरहाने
जैसे चकोरी मंत्र-मुग्ध-सी आनन-चंद्र निहारे
किन्तु, अचानक आज खुल पड़ीं आँखें ‘वनमाली’ की
चोरी पकड़ी गयी विमोहित ‘आशा’ मतवाली की
धरती लगी खुरचने नख से, आँखें कर लीं नीची
सारा आनन लाल हो उठा, बन आयी लाली की
‘वनमाली’ के शशि-मुख पर भी उगी हँसी की रेखा
उसने उसके शर्मीले मुख पर ‘कुछ’ अंकित देखा
देखी उसने शशि-मुखड़े पर - शुद्ध प्रेम की छाया
गालों पर, अधरों पर, दृग पर मधुर प्रेम की माया
‘मौन हो रही हो क्यों आशे!’ -‘वनमाली’ हँस बोला
उधर हवा के मधुर झकोरों से उपवन हिल-डोला
‘वनमाली ने कहा-‘मौन क्यों? आशे! कुछ तो गाओ
इस घायल के पीड़ित उर को गाकर ही बहलाओ’
‘आशा’ गाने लगी- ‘प्रेम है प्रभु का रूप सलोना’
‘शुद्ध और स्वर्गीय प्रेम पर चले न जादू-टोना’
‘देख रही मैं आज प्रेममय जग का कोना-कोना’
‘बरस रहा मेरी दुनिया में पल-पल चाँदी-सोना’
सुन कर मधुर गीत की कड़ियाँ झूम उठा ‘वनमाली’
लगे झूमने कुंज, कुंज में गंध-अंध मतवाली
‘कहू’ बोल उठी कोयलिया और पपीहा ‘पी-पी’
झूमी मधुर बयार, मचल कर झूम उठी शेफाली
मस्त-मगन हो कर ‘वनमाली’ बोला- ‘सरलो आशा
पाकर तुम्हें और कुछ पाने की न मुझे अभिलाषा
सच्चा प्रेम हमारा आशे! निर्मल गंगाजल-सा
शुद्ध स्वर्ण-सा, परम ब्रह्म-सा स्वाती की वर्षा-सा’
‘तुम्हें देख कर मैं अपने चिर-परिचित वन को भूला
तुम्हें देख कर मैं विस्मित अपने तन-मन को भूला
तुम्हें देख कर भूल गया हूँ मैं बिछुड़ों को
तुम्हें देख कर मैं अपने वन के जीवन को भूला’
‘मैं एकाकी हूँ, तुम भी हो एकाकिनी हो जग में
हमने एक-दूसरे को पाया जीवन के मग में
आओ अब मिल-जुल भूतल पर प्रेम-प्रचार करें हम
जन-जन के मन-मन में मानवता के भाव भरें हम’
‘हम अपने आँसू से दुनिया के पापों को धो दें
इस जग के कन-कन में बिरुए मधुर प्रेम के बो दें
पुरुष-प्रकृति के मधुर मिलन से नूतन जग निर्मित हो
हृदय-हृदय की बीन प्रेम के स्वर से स्पंदित हो’
‘रोम-रोम विहँसे, प्राणों के सरसिज भी मुस्कायें
हृदय-हृदय के गगनांन में श्रवि के घन मँड़रायें
मधुर प्रेम का वह आलम हो कोसों दूर कपट से
स्निग्ध उमंगों के प्रकाश से शशि-मुखड़े खिल जायें
‘कौन जानता कब तक जीवन की जंजीर बजेगी
कब तक प्राणों की वंशी यमुना के तीर बजेगी
रस से भींगी हुई जिंदगी की यौवन-वीणा पर-
कब तक सुख-सौन्दर्य बजेंगे, कब तक पीर बजेगी
”अस्तु, चलो मधुरे! गाँवों में दोनों मिलकर घूमें
सुन कर मधुर प्रेम का गुंजन जन-जन के मन झूमें
अग-जग की रानी हो दैवी मानवता कल्याणी
प्रति-पल यह संसार ‘सत्य, शिव, सुन्दर’ के पद चूमें“