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प्रेम-प्रलाप / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
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भरे हैं उसमें जितने भाव,
मलिन हैं, या वे हैं अभिराम,
फूल-सम हैं या कुलिश-समान,
बताऊँ क्या मैं तुझको श्याम!
हृदय मेरा है तेरा धाम।
गए तुम मुझको कैसे भूल,
किसलिए लूँ न कलेजा थाम,
न बिछुड़ो तुम जीवन-सर्वस्व!
चाहिए मुझे नहीं धन-धाम।
तुम्हीं मेरे हो लोक-ललाम।
रँग सका मुझे एक का रंग,
दूसरों से क्या मुझको काम,
भला या बुरा मुझे लो मान,
भले ही लोग करें बदनाम।
रमा है रोम-रोम में राम।
गरल होवेगा सुधा-समान,
सुशीतल प्रबल अनल की दाह;
बनेगी सुमन-सजाई सेज,
विपुल कंटक-परिपूरित राह।
हृदय में उमड़े प्रेम-प्रवाह।
बताता है, खग-वृंद-कलोल,
सरस-तरु-पुंज, प्रसून-मरंद,
वायु-संचार, प्रफुल्ल मयंक,
हमारा व्रज-जीवन-नभ-चंद,
सत्य है, चित है, है आनंद।