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प्रेम अगर / मुदित श्रीवास्तव

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प्रेम अगर दिखाई देता
तो वह किसी फूल की तरह दिखता
जिसमें होता मधु या बनता जिनसे इत्र
किसी पंछी की तरह दिखता
जिसे सरहदों से कोई मतलब न हो
और वह उड़ता रहता
जहाँ–तहाँ पंख पसारे

प्रेम अगर सुनाई देता
तो किसी कोयल की कूक की तरह सुनाई देता
जिसे ढूँढते हुए
तुम्हारी गर्दन दुखने लगती
बांसुरी से निकली ध्वनि की तरह होता प्रेम
जिसके लिए बांस के पेड़ों ने
अपनी कुर्बानी दी होती

प्रेम की अगर कोई गंध होती
तो वह ठीक उसी तरह महकती
जिस तरह रात में
रातरानी, या फिर
पहाड़ों से आती मटमैली
गन्ध!

प्रेम का अगर स्वाद होता
तो वह ठीक उस निवाले की तरह होता
जो बचपन में तुम अपनी माँ के हाथों से खाया करते थे
एक मोटी रोटी और नमक जितना
ही स्वाद...

प्रेम की छुअन अगर होती
तो वह ऐसी होती
जैसे किसी घाव पर मरहम लगाते वक़्त
कोई उसे छूता है पहली दफ़े
और मन में ही निकलती है
एक मीठी-सी आह!