प्रेम और देह / आयुष झा आस्तीक
गर प्रेम अथाह सागर है
तो निःसंदेह देह एक कश्ती!
सच्चे तैराकों को भला
कश्ती की क्या ज़रूरत?
जिन्हे तैरना नहीं आता
वो डूबना जानते है!
जो डूबना जानते हैं
प्रेम उबारता है उसको...
डूबते-उबरते वो
सीख जाते हैं तैराकी
पर कश्ती चाहिए अब उसे
मछलियाँ पकड़ने के लिए...
समुंदर किनारे
मछुवारों का जत्था
पर मछुवारा नहीं वैरागी है वो
जो सिर्फ और सिर्फ
प्रेम करना जानता है...
हाँ आपसी सहमति से प्रेम
जब भी होता है दैहिक,
भले ही हो सकता है कि हो जाए
प्रेम की अकाल मृत्यु,
पर प्रेम अमरत्व को प्राप्त कर लेता है
हमेशा हमेशा के लिए...
आनंद की अनुभूति जब होती है
चरम पर....
प्रेयसी की सुखद अतृप्त चीख
बंद कमरे के दीवार से
टकराने के उपरांत
ख्वाहिशों के हरसिंहार में तब्दील
हो कर बरसने लगते हैं
अनवरत लंबवत्
प्रेयस के पीठ पर....
प्रेयस अनायस ही ख्वाहिशों के
स्वाद तले दब कर
प्रेयसी के अर्द्धनग्न
पलकों पर जीभ टिका कर
बना देता है हलन्त...
अब प्रेयसी बन जाती है
याचिका!
और अपने बाएँ हाथ के
अनामिका में
कनिष्ठिका को छुपा कर
रीढ की हड्डी को गिनते हुए
झट से
हिन्दी में नौ लिख देती है प्रेयस के
पीठ पर....
कि अचानक प्रेयस की आह
लताओं की भाँति लतडने लगती है
प्रेयसी के जीभ ठुड्डी को चूमते हुए
नाभि के मध्य तक...
और ख्वाहिशों के
हरसिंहार पीठ से सरक कर लिपट
जाते हैं उन लताओं से...
चीख और आह के इस
अद्भुत संयोग से,
प्रेयसी के नाभि पर अंकित
हो जाता है
एक प्रश्न वाचक चिन्ह (?)
इसी प्रश्न वाचक चिन्ह (?) में
छुपा होता है प्रेम के अकाल मृत्यु
का गूढ रहस्य....
प्रेयसी के पूर्ण विराम लिखने तक
प्रेयस करवट बदल कर
सुलझाता रहता है इस रहस्य को...
तब पूर्ण विराम के बिन्दु
को बिंदिया समझ कर प्रेयस
पहना देता है प्रेयसी के
ललाट पर...
और प्रेम बन जाती है एक
अनंत अपरिमित रेखा
कोई भी ओर-छोर नहीं है
जिसका...
ना उम्र की बंदिश
ना ही जन्म का कोई बंधन...!
और प्रेम अमरत्व को
प्राप्त कर लेता है
हमेशा-हमेशा के लिए...
प्रेम देह से परे हो सकता है
लेकिन,
देह प्रेम के बिना हो जाता है
शिथिल....
क्यूंकी,
जिन्हे तैरना नहीं आता,
वो डूबना जानते हैं.
और,
जो डूबना जानते हैं
प्रेम उबारता है उसको...!!