प्रेम कविताएँ - 8 / मंजरी श्रीवास्तव
एक पवित्र आग को अपने हृदय में महसूस किया मैंने
जब मैं अल्हड़पन की नींद से जागी
मेरी आत्मा को तड़पा रही थी
मुझे बार-बार कोंच रही थी एक आध्यात्मिक भूख
यातना भी दे रही थी
पर यह पीड़ा, यह वेदना आनन्ददायक थी ।
उसे गर्भ में रखकर बरसों पाला मैंने
और सो गई उस गर्भस्थ के साथ गहरी नींद
बरसों बाद जब आँखें खुलीं तो पाया कि
जन्म ले चुका था गर्भस्थ
मेरी आँखें चमक उठीं सद्यः प्रसूता की मानिन्द उसे देखकर
उसके पंख उग आए थे और वह दाएँ-बाएँ हिल रहा था
हरक़त कर रहा था ।
उसे उड़ना सिखाते वक़्त
ख़ूब उड़ी उसके साथ मैं विस्तृत आकाश में
ख़ूब लम्बी पींगें ली हमने
जिसके गवाह ज़मीन-आसमान रहे
दसों दिशाएँ रहीं
आठों प्रहर रहे
अपने इस इकलौते बच्चे को अपनी आत्मा के सात तालों के भीतर बन्द रखती मैं
हर रोज़ उसकी आँखें आँजती रही काजल से और माथे पर उसके एक कोने में लगाती रही काला टीका एक लम्बे अरसे तक
ताकि बचा सकूँ उसे हर बुरी नज़र से ।
वह अपनी कजरारी गोल-गोल आँखें घुमाकर मुझे टुकुर-टुकुर देखता
जैसे आँखों से मेरे हृदय में उतारकर देखना चाहता हो कि उसके अनकहे शब्दों का मुझ पर क्या प्रभाव पड़ा...
मैं समझ भी पाती हूँ या नहीं उसकी बात...उसकी भाषा...
वह शायद अपनी आवाज़ की अनुगूँज...उसकी प्रतिध्वनि सुनना चाहता था ।
वह शायद अपने हृदय में उठे भावों की अभिव्यक्ति मेरी आँखों में...मेरे चेहरे पर देखना चाहता था ।
अब बहुत परिपक्व हो गया है
पर उसकी आँखें अब भी वैसी ही हैं...
कजरारी...मुझे टुकुर-टुकुर ताकती हुई प्रतीक्षारत
उसका रूप सौन्दर्य मेरे लिए अर्थ है
दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत शाश्वत उक्तियों का ।
सृष्टि के प्रारम्भ के पूर्व ही ईश्वर ने जोड़ दिया था उसे मेरी गर्भनाल से
मैंने नाम दिया उसे .... ‘प्रेम’...