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प्रेम कविताएं / प्रेमशंकर रघुवंशी

(1)
होने की तरह

तुम्हारे होने पर
ना अणु, ना परमाणु
ना आकाश ना पाताल होते हमारे बीच

और मैं भी नहीं होता कहीं

तुम्हारे होने पर
तुम ही होते
होने की तरह हमारे बीच!!

(2)
यादगार होती रहीं वे जगह

जिन जगहों किया प्यार
यादगार होती रहीं
वे जगहें

ऑंगन की
आग्ेय दिशा में
अपनी छाँव तले बिठाकर

खुशबू से नहलाती जूही
आवभगत को तत्पर
प्रसन्नमना चौखट

छत तक ले जातीं
निर्बाध सीढ़ियाँ

और मिलन के संस्मरण सहेजे
एक एक पल
सदा को मेहफूा हैं
हमारे पास

जहाँ भी किया प्यार
यादगार होती रहीं
वे जगह हमारे लिए!

( 3)
जिनसे भी करता प्यार
जिनसे भी करता प्यार
याद नहीं रहतीं
जन्मतिथि

याद ही नहीं रहती
रुचि-अरुचि
अच्छाई-बुराई उनकी

जिनसे भी करता प्यार
नहीं खिंचा पाता फोटुएँ
उनके साथ

पौधों को सूना कर
नहीं करता उनसे
प्यार का इजहार फूलों से

जिनसे भी करता प्यार
कर ही नहीं पाता
सिवाय प्यार के कुछ और!!

(4)
जिस वक्त
तुम्हारे घर से
जिस वक्त
नहीं आने का कहकर

लौट रहा था

उस वक्त
बरहमेश मिलते रहने का
पक्का भरोसा देख रहा था

तुम्हारी ऑंखों में !!

( 5)
फिर से
जीना है
तन मन का
प्रथम सम्मोहन

फिर से
प्यार का
प्रथम क्षण भी

पीना है चाँदनी
और लावा
साथ साथ हमें!!

( 6)
सबसे ज्यादा
जिस क्षण जन्मेगा
हमारे अंदर प्रेम
जगमगा उठेगा ब्रह्माण्ड

हर जगह
पहुँचेंगे आमंत्रण संदेश
जन्मोत्सव के

ना कोई
अमंगल होगा कहीं
ना रोग, शोक

और सभी के कंठों से
बेखटके
फूटने लगेंगी प्रार्थनाएँ!!

( 7)
तुम्हें लेकर अब भी

अब भी दमक रही होगी भाल पर सिंदूरी टिकुली
अब भी लहरा रहे होंगे किसलयी केश

अब भी बह रही होंगी बासंती उमंगें
अब भी खिलखिला रहा होगा हँसी का झरना

अब भी बौरा रही होगी अमराई मन में
अब भी फूट रहे होंगे देह से सौरभ के छंद

अब भी ऋतुराज की तरह याद करती होगी मुझे
अब भी स्मृति को बाँहों में भरती होगी तुम!!
( 8)
कहीं ऐसा तो नहीं

तब प्यार की बातें करते
देह तक आकर
घुलते गये थे

अब प्यार की बातें करते
आत्मा की तरफ जाते
ठिठकने लगे हैं

ऐसा तो नहीं हो रहा
कि खुद ही
खुद के हाथों मरने लगे हैं कहीं !!

(9)
अपना पुनर्जन्म मेरे साथ

तुम ही तो समाई थीं
आपरेशन थियेटर के अंदर
शल्य क्रिया के वक्त प्राण में

तुमने ही तो देखा था
बाईपास सर्जरी के बाद झटके खाकर
होश में आते हुए मुझे

तुमने ही तो देखा था
अपना पुनर्जन्म
मेरे पुनर्जन्म के साथ !!

(10)
जीने के वक्त
देह से
देह को जीते हुए
जी चुके देह को

अब मन से
मन को
जीने का वक्त है

साथ साथ
पार करनी होगी
काल की नदी

साथ साथ
रचने होंगे-
विश्वास के कूल हमें।

 (11)
प्रणय का अनहद नाद

लिख देना चाहता
एक कविता अपनी कलम से
तुम्हारे वदन पर

उतार देना चाहता
मन में
सभी इन्द्रधनुष अपने

और भर देना चाहता प्रणय का अनहद
रोम रोम में तुम्हारे !!

(12)
इस बारिश में
आकाश की सेज पर
सूरज को
अपनी लटों से ढाँके

बेसूद बरस रही है बदली!
आओ! इस बारिश में
प्यार की छतरी तले
अपने आकाश की सेज तक

ले चलूँ तुम्हें !!