प्रेम की नदी / दयानन्द पाण्डेय
तुम मिलती हो ऐसे जैसे नदी का जल
और छू कर निकल जाती हो
मुझे भी क्यों नहीं साथ बहा ले चलती
जैसे धरती में प्राण फूंकती हो
प्रकृति को रचती फिरती हो
मुझ में भी कुछ रचो न
प्रेम के मंत्र फूंक कर रचो
इस तरह रचो कि जैसे घर
घर का सुख रचती हो
कि जैसे दुनिया
और दुनिया को सुंदर बनाती हो
तुम्हारे मिलने के रूप भी अजब-गज़ब हैं
कभी राप्ती की बाढ़ सी भरी-भरी हुई
कभी जमुना के पाट की तरह फैली और पसरी हुई
कभी सरयू की तरह घाघरा को समेटे सीना ताने गीत गाती हुई
कभी तीस्ता की तरह चंचला तो कभी व्यास की तरह बहकी हुई
कभी झेलम और पद्मा की तरह सरहदों में बंटती और जुड़ती हुई
नर्मदा और साबरमती की तरह रूठती-मनाती हुई
कभी कुआनो की तरह कुम्हलाई हुई
कभी गोमती की तरह बेबस
कभी वरुणा की तरह खोई और सोई हुई
कभी गंगा की तरह त्रिवेणी में समाई हुई
हुगली की तरह मटियाई और घुटती हुई
रोज-रोज ज्वार-भाटा सहती हुई
कभी यह, कभी वह बन कर
छोटी-बड़ी सारी नदियों को अपना बना कर
सब का दुःख और दर्द अपने में समोए हुई
सागर से मिलने जाती हुई
निरंतर बहती रहती हो मन की धरती पर
इतनी हरहराती हो, इतना वेग में बहती हो कि
मैं संभाल नहीं पाता, न तुम को, न खुद को
तुम्हारे भीतर उतरता हूं तो जल ही जल में घिरा पाता हूं
जल का ऐसा घना जाल
तुम्हारे भीतर की नदी में ही मिलता है
कभी कूदा करता था नाव से बीच धार नदी में झम्म से
नदी का जल जैसे स्वप्न लोक में बांध लेता था
भीतर जल में भी तब सब कुछ साफ दीखता था
बीच धार नदी के जल में
धरती तक पहुंचने का रोमांच ले कर कूदता था
पर कभी पहुंच नहीं पाया जल को चीरते हुए धरती तक
आकुल जल ऊपर धकेल देता था कि मन अफना जाता था
कि अकेला हो जाता था उस विपुल जल-राशि में
आज तक जान नहीं पाया
लेकिन पल भर में ही जल के जाल को चीरता हुआ
झटाक से बाहर सर आ जाता था
जल के स्वप्निल जाल से जैसे छूट जाता था
फिर नदी में तैरता हुआ, धारा से लड़ता हुआ
इस या उस किनारे आ जाता था
यह मेरा आए दिन का खेल था
कि हमारा और नदी का मेल था
लोग और नाव का मल्लाह रोकते रह जाते, बरजते रह जाते
लेकिन स्वप्निल जल जैसे बुला रहा होता मुझे
और मैं नाव से नदी में कूद जाता था झम्म से, बीच धार
नदी की थाह नहीं मिलती थी
कोई कहता पचीस पोरसा पानी है, कोई बीस , कोई पंद्रह
एक पोरसा मतलब एक हाथी बराबर
यानी सैकड़ो फीट गहरे पानी में उतरने का रोमांच था वह
हरिद्वार में हरकी पैड़ी घाट के पहले भी यह नदी की तेज़ धारा में
झम्म से कूदने का रोमांच और फिर जान आफत में डाल लेने का रोमांच
तुम्हारे प्रेम में डूब जाने की तरह ही सम्मोहित करता है बार-बार
बरसों पहले पहली बार जब हवाई जहाज में बैठा था
तो रोमांचित होते हुए एक सहयात्री ने बताया था
कम से कम बीस-पचीस हज़ार फीट ऊंचाई पर हम लोग हैं
आकाश इतना ऊंचा हो सकता है
और ज़्यादा ऊंचा हो सकता है
होता ही है अनंत
पर नदी इतनी गहरी नहीं होती, न इतनी चौड़ी
ब्रह्मपुत्र नद भी नहीं, समुद्र भी नहीं
हेलीकाप्टर ज़रूर ज़्यादा ऊंचा नहीं उड़ता
धरती से जैसे क़दमताल करता उड़ता है
दोस्ताना निभाता चलता है
सब कुछ साफ-साफ दीखता है
धरती भी, धरती के लोग भी
हरियाली तो जैसे लगता है अभी-अभी गले लगा लेगी
जैसे तुम्हें देखते ही मैं सोचता हूं कि गले लगा लूं
समुद्र की लहरों की तरह तुम्हें समेट लूं
लेकिन तुम तो समुद्र की विशालता देख कर भी डर जाती हो
तुम्हें याद है गंगा सागर के रास्ते में जब हम स्टीमर पर थे
सुबह होना ही चाहती थी, पौ फट रही थी
तुम ने खिड़की से बाहर झांक कर देखा था
और लोक-लाज छोड़ मुझ से चिपकते हुए सिहर गई थी
पूछा था मैं ने मुसकुरा कर कि क्या हुआ
चारो तरफ सिर्फ़ पानी ही पानी है, दूर-दूर तक कहीं कुछ नहीं
सहमती हुई, अफनाती हुई, आंख बंद करती हुई तुम बोली थी
ऐसे जैसे तुम नन्ही बच्ची बन गई थी
जाने क्यों प्रेम हो या डर आदमी को बच्चा बना ही देता है
लेकिन तुम्हारे भीतर उतरने का रोमांच
बार-बार उतरने का रोमांच
सैकड़ो या हज़ारो फ़ीट गहरे उतरने का तो है नहीं
अनंत की तरफ जाने का है जहां कोई माप नहीं
मन के भीतर उतरना होता है
और तुम हो कि नदी के जल की तरह
हौले से छू कर निकल जाती हो
कि इस एक स्पर्श से जैसे मुझे सुख से भर जाती हो
लगता है कि जैसे मैं फिर से नदी में कूद गया हूं झम्म से
प्रेम की नदी में
तुम मुझे छू रही हो और मैं डूब रहा हूं
जैसे उगते-डूबते सूरज की परछाईं नदी में डूब रही है
तुम्हारे भीतर की धरती मुझे छू रही है
[26 फ़रवरी, 2015]