भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
प्रेम स्मृति-6 / समीर बरन नन्दी
Kavita Kosh से
छाती पर छुरी रख कर तुम जो बैठी हो...
झाँसी की रानी की तरह
तुम क्या मेरा बरबाद प्रेम नहीं हो ?
या, प्रेम की चरम-सीमा हो ।
यह तुम्हारी भूल थी, ग़लत छाती में तुमने भोंका है खंजर
अब प्रेम-देवता, लेते हैं मेरा चुम्बन ।
हज़ार बार हार कर मै हो गया हूँ हरिद्वार
धो लिया है आपना मुख गंगा में,
अपूर्ण पात्र जो भर लिया है तो,
तुम क्या-क्या छीन लेना चाहती हो ?
लो प्रियतमा... छाती के पंजर में उतार दो खंजर
एक तिल डिगूँगा नहीं, मेरी आत्मा से बाहर
निकल आने दो ख़ून की जगह, तुम्हारी चाह....
फिर टिमटिमाते जुगनू की तरह
तुम्हारे प्रेम की छाया में पड़ा रहूँगा शव की तरह ।
पर, मंजू श्री चक्रवर्ती, क्या मेरा प्रेम व्यर्थ गया
या तुम प्रेम की सीमा थीं ?