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प्रेमोपनिषद् / अज्ञेय

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वह जो पंछी
खाता नहीं, ताकता है,
पहरे पर एकटक जागता है-
होगा, होगा जब।

मैं वह पंछी हूँ
जो फल खाता है
क्यों कि फल, डाल, तरु, मूल,
तुम्हीं हो सब।

पर एक जागता है, ताकता है-
कौन?
मैं हूँ, जागरूक, पहरेदार।

पक्षी और डाल, तरु और फूल,
सभी मैं देखता हूँ
तुम्हारा होकर।

मुक्त करे तुम्हें, मौन
वही तो होगा
मेरा प्यार।

नयी दिल्ली, सितम्बर, 1968