प्रेयसी बनाम चादर / दामिनी
फोन की घंटी घनघनाई
मैं दौड़ती हुई आई,
उठाते ही रिसीवर तुम्हारी आवाज टकराई
तुमने कहा,
‘‘तुमसे मिलने का मन है।’’
और मैं एक पल को
खामोश हो जाती हूं
मगर, इस खामोशी में
मेरी वो चीख है जो चीखेगी तब तक
जब तक तुम दोबारा कहोगे
‘‘तुमसे मिलने का मन है।’’
अपनी कार के दरवाजे के साथ ही तुम
खोलोगे उस अलमारी का दरवाजा
जहां एक हफ्ते पहले तुम मुझे
भोग कर, समेट कर, सहेज कर रख गए थे,
फिर तुम मुझे उस सफर पर ले जाओगे
जहां मेरे इंतजार का सूरज
तुम्हारी रात में खो जाएगा
और उस रात का सारा अंधेरा
एक कमरे में सिमट जाएगा,
तुम मेरी तहंे खोलकर
मुझे बिछा दोगे उस बिस्तर पर
और मैं
यूं गौर से देखने लूगूंगी
उस चादर को
जिसकी जगह मैंने ले ही है
और इसके पहले कि
तुम भी अंधेरे की ही तरह
मुझ पर छा जाओ
मैं भी अंधेरे का हिस्सा बन
खो जाऊं,
तड़पकर दे देना चाहती हूं
तुम्हें उस उजियारे का वो सब
जो अपने हिस्से में से मैं
तुम्हारे लिए बचा लाई हूं
बिना तुम्हारी पहल का इंतजार किए
खुद ही झटके से अपने बालों-सा
खोलकर बिखेर देती हूं
उस सामान को
जो तुम्हारे लिए जुटा लाई हूं,
सबसे पहले मैं तुम्हें देती हूं
वो सुनहरी पहली किरण का टुकड़ा
जो बादल से छिटककर
मेरी खिड़की पर आ बैठा था
और मैंने उसे पकड़कर
तुम्हारे लिए रख लिया था
इसी अंधियारे में दिखाने को।
एक गुनगुना उनींदा-सा सेक भी है
उस दुपहरी का, जब मैं
तपती धूप में ठंडे पानी में
पांव डाले बैठी थी
वो धूप तेरे दिए अंधेरे-सी गर्म थी
और पानी तेरी मौजूदगी-सा ठंडा।
एक खुशबू भी है
फूल पर पड़ी उस धूल की,
जिसे ओस और ज्यादा महका गई थी
एक गीलापन बारिश के
बिन बरसे चले जाने का
एक छोटी हंसी
एक लंबी उदास मुस्कुराहट
एक रात की आंख-मिचौली तारों की
एक चंाद की लाड़ भरी खिलखिलाहट
और भी ना जाने कितना कुछ
जो होना रह गया है
जो कहना रह गया है
क्योंकि तुम अचानक बीच में
मेरी बातों को, मेरे बालों-सा
समेट देते हो, कहते हो
‘‘मैं भी एक सिंदूरी शाम
तुम्हारे लिए लाया हँू।’’
और मैं झट अपनी हथेली बढ़ा देती हूं
लेकिन तुम्हारी हथेली से
मेरी हथेली तक आते-आते
वो सिंदूरी शाम ढलकर रात बन जाती है।
क्या तुम्हारी हथेली से
मेरी हथेली तक का सफर भी
उतना ही लंबा है,
जितना तुम्हारी चुटकी से
मेरी मांग का?
मुझे सवालों के जंगल में अकेला छोड़कर
तुम अंधेरे में खो जाते हो
पास आने की कोशिश में दूर हो जाते हो।
फिर अचानक शायद
तुम्हें एहसास होता है
मेरी ठंडी दूरी का
और तुम वापस लौट आते हो
मेरे सवालों को अधूरा छोड़
मेरी सलवटों को झाड़कर फिर से,
समेटकर, सहेजकर तह कर देते हो और दोबारा
उसी चादर को बिछा देते हो।
इस बार
वो चादर मुझे गौर से देखती है
जैसे अब, उसने मेरी जगह ले ली हो।
फिर तुम वापस मुझे
उसी अलमारी में रख आते हो
और मैं उस खामोशी में
उस गूंज को ढूंढ़ती हूं
जिसके साथ मुझे फिर से
तब तक रहना है जब तक
तुम फिर से कहोगे,
‘‘तुमसे मिलने का मन है।’’