प्लेटफार्म पर / कुमार अनुपम
एक एक कर हमारी यात्रा के शुभेच्छु
खत्म होते अपने अपने प्लेटफार्म टिकट
के समय के साथ
लौट रहे थे
और गाड़ियाँ प्रेमिकाओं की तरह लेट थीं
प्रतीक्षा
मन में लू की तरह
भ्रम रट रही थी
एक आस्था थी
जो भीतर से हमारे
छलछला रही थी
बेकरार कर रही थी गर्मी
और भला खरीद-खरीद कर कोई
कितना पी सकता है पानी
बुकस्टॉल तो जैसे
बेड़िनों की अदा थे जिन पर
पिचके गालोंवाले कुछ लोग
फिदा थे
एक कुतिया लेटी थी अपनी आँखों को
अपने पंजों से ढके
जो धूप से
बचाव की एक ठीकठाक कोशिश थी
किंतु अपनाने का जिसे
अर्थ था
माँ का अचार ढोकना गँवाना जो होने के बावजूद सामान में
फिसला जा रहा था
यद्यपि
समेट कर सब कुछ एक दो बार
मूँदीं आँखें
और कानों से इंतजार किया
जिसे भंग किया बार बार
दूसरी गाड़ियों की आवाजों ने
आगे पीछे अपने अपने समय से
आ रही थीं गाड़ियाँ जा रही थीं
एक गाड़ी थी हमारी ही
जिसे जरूरी यात्रा से हमारी
जैसे मतलब ही नहीं था
जरा भी
चिंता ही नहीं थी
हमारे समय की
सबसे कठिन है इस जहान में किसी की प्रतीक्षा करना
हमारी प्रतीक्षा
हमारा गंतव्य कर रहा होगा।