फगुआ / पतझड़ / श्रीउमेश
हकरी-डकरी फगुआ ऐलै, आजे तेॅ छेकै धुरखेल।
कादोॅ-किच्चट, गरदा-माटी, सब के होतै रेलम्पेल॥
भाँग पीबी केॅ सब उमतैलै, मचलोॅ छै होली हुड़दंग।
पुआ-पुड़ी घर-घर बनलै, एकरोॅ बाद उड़ैतै रंग॥
हो हो होरी गाबी-गाबी, सब खेलैं छै रंग-अबीर।
रस आनन्द मनावैछै; गावैछै ”सुनले; अरर; कबीर॥“
ढौल-मंजीरा लेॅ केॅ ऐलोॅ धुरना फगुआ गाबै लेॅ।
ऐलै ओकरोॅ साथियो सब, होली हुड़दंग मचाबै लेॅ॥
भाँग पिबी केॅ बुत्त सभे छै, गावै छै झकझोरी हो।
सदा आनन्द रहे एहि द्वारे, मोहन खेले होरी हो।“
सुखवाँ मारै छै धमार के ताल, ढोल तेॅ गाजै छै।
ताता धिन् धिन् ताता धिन धिन ताता धिन् धिन बाजै छै॥
घर-घर में आनन्द रंग, होली के बाजै छै मिरदंग।
झन्न झारू पाँडे के देखै छी रंग बड़ा बदरग॥
तस्मैं, पूआ-पूड़ी खेलक खूब ऊड़ैलक-रंग अबीर।
हमरा छाया तर कानछै, कारू होलोॅ हाय अधीर॥
करजा लेॅ केॅ करलेॅ छेलोॅ अवरी वे बेटी के ब्याह।
तेकरा पर बीमारी ऐलै, होतै भला कहाँ उत्साह?
परब-तेहारी में हरदम, खाली होय छै पैसै के खेल।
परब तेहारी-बेकारी में होतै भला कहाँ सें मेल॥
कतना दौड़-धूप करलक लेकिन नै भेलै एक उपाय।
बच्चो-बुतरु भुखले रहलै, फगुओ गेलै, हायरे हाय॥
उन्नेॅ ढोलक-झाँझ-मजीरा, रग-अबीर उड़ै घनघोर।
इन्नेॅ हमरा छाया तर, कारु के आँखी ढर-ढर लोर॥
कहीं रंग छै कहीं जंग छै, कहीं नाक छै, कहीं नकेल।
कहीं धूप छै, कही छाँह छै देखोॅ, रे कुदरत के खेल॥