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फटेहाल जि़न्दगी / राजेन्द्र वर्मा
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नौ बजने को आये
साढ़े नौ की है ड्यूटी ।
आठ-दस मिनट बस अड्डे तक
लग ही जायेंगे
लगी हुई बस मिली अगर तो
ड्यूटी पायेंगे
छूट गयी बस कहीं अगर
तो ड्यूटी भी छूटी ।
पाँच मिनट की देर क्या हुई,
इंट्री बन्द हुई
गेटमैन के कानों में
नियमों की ठुसी रुई
रोज-रोज़ सच्चाई भी
लगती जैसे झूठी ।
ऑटो से जायें तो समझो
‘सौ’ की चोट हुई
दो दिन की सब्ज़ी-भाजी
आँखों से ओट हुई
फटेहाल जि़न्दगी टँगी
मजबूरी की खूँटी ।।