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फर्क / कुमार कृष्ण
Kavita Kosh से
एक-एक कर के काग़ज़ पर अँगूठे बनते गए खेत
मैं पढ़ता रहा दूर एक शहर में
विलायती भाषा का इतिहास
ओखली, पुआल, खूँटे, उपले
छोटे-छोटे शब्द बनकर चले गए
एक-एक कर के शब्दकोश के भीतर
फटे हुए कुर्ते में देखते रहे पिता
एक रोबदार कमीज का सपना
लोकदेवताओं के दरख्त सींचते
फटा हुआ बस्ता बन गई माँ
रफ्ता-रफ्ता बन गया मैं एक विलायती पोशाक
जो भूल चुका है-
खेत की पहचान सबसे पहले
फसल से नहीं नाम से होती है
किस खेत का नामकरण कब हुआ
इसका उत्तर न मेरे पिता के पास था
न मेरे पास है
इसे जानते हैं राजा के कारिन्दे
किसी टेलीफोन की प्रतीक्षा में
पूरी तरह आवाज़ खो चुकी है भाषा
बदल चुका है मायने
आवाज़ और भाषा का पुराना रिश्ता।