फ़रवरी / विनोद विट्ठल
सुन्दर सपने जितना छोटा होता है
कम रुकता है कैलेण्डर इसकी मुण्डेर पर
जैसे सामराऊ स्टेशन पर दिल्ली-जैसलमेर इण्टरसिटी
फ़रवरी से शुरू हो जाती थी रँगबाज़ी; होली चाहे कितनी ही दूर हो
सी०बी०एस०ई० ने सबसे पहले स्कूल से रँगों को बेदख़ल किया है
इसी महीने से शुरू होता था शीतला सप्तमी का इन्तज़ार
काग़ा में भरने वाले मेले और आनेवाले मेहमानों का
अमेज़ोन के मेलों में वो बात कहाँ ?
लेकिन कॉलेज के दिनों में बहुत उदास करती थी फ़रवरी
दिनचर्या के स्क्रीन से ग़ायब हो जाती थी सीमा सुराणा की आँखें
पूरा कैम्पस पीले पत्तों से भर जाता था
घाटू के उदास पत्थरों से बनी लाइब्रेरी
बहुत ठण्डी, बहुत उदास और बहुत डरावनी लगती
जैसे निकट की खिलन्दड़ी मौसी अचानक हो जाती है विधवा
नौकरी के दिनों में ये महीना
मार्च का पाँवदान होता है : बजट, पैसा और ख़र्च-बचा पैसा
इच्छा तो ये होती है
हेडफ़ोन पर कविता शर्मा की आवाज़ में
बाबुशा कोहली की प्रेम कविताएँ सुनते हुए
टापरी के फ़ॉरेस्ट गेस्ट हाउसवाली रोड पर निकल जाएँ
पर वो रोड भी तो फ़रवरी की तरह छोटी है
कई बार ये मुझे सुख का हमशक़्ल लगता है
देखो, पहचानो, ग़ायब !