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फ़र्ज़ अपने निभा रहे हो / जतिंदर शारदा
Kavita Kosh से
फ़र्ज़ अपने निभा रहे हो
कर्ज़ अपने चुका रहे हो
छुपा रहे हो अपनी गलती
धोखा स्वयं ही खा रहे हो
जितना तुम को भुला रहा हूँ
याद उतना ही आ रहे हो
कल्पनाओं की डोर लेकर
पतंग ऊंची उड़ा रहे हो
रिश्ते नातों के टूटे धागे
कितनी गांठें लगा रहे हो
शोर करके जगाने वालो
ख़ुद क्यों सोने जा रहे हो
मेरे कंधों पर बैठ कर ही
मुझको नीचा दिखा रहे हो
रोशनी का ही नाम लेकर
अपना घर क्यों जला रहे हो
अपनी बोली लगाने वालो
अपनी क़ीमत घटा रहे हो
क्रोध की भड़की है ज्वाला
ख़ुद को पहले जला रहे हो
ज़मीन पर बैठा हुआ हूँ
नीचे कितना गिरा रहे हो
हसरतों ने हरा दिया है
हकीकतों से मिला रहे हो
प्यार की बांहे फैला कर
आसमान को बुला रहे हो