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फाँक / कुमार कृष्ण

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हम चाहे कविता पर बहस करें या सूर्यग्रहण पर
पुश्तैनी आकाश की छत
सपनों की रखवाली में
हमारी पीठ बराबर थपथपाएगी
आलू और चाकू के रिश्ते को दोहराते हुए
अगली शताब्दी में भी हम
ज़िन्दगी की कोई पुरानी धुन गुनगुनाएँगे
सरकण्डे की छत पर
जंगली फलों के बीज खाकर
अपनी चोंच से लिखेंगे काले कबूतर
रिश्तों की गन्ध का आदि-ग्रन्थ
तब रहे या न रहे हावड़ा का पुल
किसी नये रजिस्टर में
स्कूल मास्टर की तरह दर्ज करेगा
कलकत्ता का चावल
आसनसोल के बच्चों की उम्र
किसी विदेशी जहाज की परछाईं देखकर
हुगली में कूदकर
बंगाल की खाड़ी पार कर जाएगी जब
दरभंगा की भूख
जलकुम्भी की तरह फैल जाएगी
दलदल की पीठ पर
कविता की नन्ही-सी फाँक
तब तुम मुझे याद करना।