Last modified on 13 फ़रवरी 2020, at 23:50

फाँस / हरेराम बाजपेयी 'आश'

फाँस जितनी बारीक और
गहराई तक चुभती है,
तन में उतनी ही अधिक आकुल होती है,
स्नेह के लिए
आँखें उतनी ही अधिक झरती है,
गहराई तक गई फाँस को
बाहर करने के लिए
कुरेदना जरूरी है,
और प्यासे मन का
साँसों के ज्वार में
डूबना मजबूरी है।
कुरदने पर
तन की फाँस तो निकाल जाती है,
पर घाव हो जाता है,
और टूटा मन
तन कहाँ ढ़ो पता है।
फाँस की चुभन
और मन की घुटन
बताने में जब असमर्थ
हो जाते है शब्द
तब याद आता है प्रारब्ध
फिर साँस भी बोझ होती है,
फाँस आखिर फाँस होती है।