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फागुन / गुलाब सिंह
Kavita Kosh से
रस के बोल भरे रागों में
बागों में गुनगुन
सुर-अलाप के सरगम बुनता
गलियों में फागुन।
सुबह गुलाबी
दुपरह उजली
साँझ सुरमई ढलके
ऋतु सारे दिन
घूम रही है
कपड़े बदल बदल के
तारे कल की अगवानी में
बिखरे हुए सगुन।
हरे खेत में
बगुलों जैसे
आसमान में बादल
शाहजहाँ-सा मन
रचता है, फिर से-
कोई ताजमहल
लहरों पर चाँदनी, डोलते-
फिरें कपोत मिथुन।
झीलों में धुलती-
हथेलियों-सी
तैरती मछलियाँ
मौसम की
छाती फूली
छोटी पड़ गईं पसलियाँ
मौन तोड़ते तिनके कब तक-
बैठोगे गुमसुम!