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फागुन के गुन / प्रेमरंजन अनिमेष
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गा रे गा मन फागुन के गुन
भीतर भीतर कुछ पगता है
रंग तभी ऐसा जगता है
होंठ तुम्हारे जामुन-जामुन
नहीं अगर आता है गाना
कहीं हवा से कान लगाना
गा फिर उसकी सन-सन सुन-सुन
रंगों से ये गीत रँगे हैं
अक्षर-अक्षर रंग लगे हैं
गुन इनको भौंरे-सा गुन-गुन
भोर साँझ वाले अम्बर से
फूलों से चिड़ियों के पर से
रंग अनूठे रखना चुन-चुन
ऐसा रंग लगाना प्यारे
मन के रंग रँगाना प्यारे
छुड़ा सके ना कोई साबुन
सूरज करता रोज़ ठिठोली
आसमान में रचे रँगोली
रात उतरती रुनझुन-रुनझुन
खेल रहे हैं दामन-चोली
कैसी खून सनी अब होली
सगुन बना ऐसे सब असगुन
रंगों से है रची जिन्दगी
रंगों में है बची जिन्दगी
चल बाँटें 'अनिमेष' यही पुन