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फागुन के तीर / मोहन अम्बर

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चलाता फागुन ऐसे तीर, अबोला टूटा, अब टूटा।
नदी पर सुरखाबों के जोड़, चोंच में डाले बैठे चांेच,
देखकर पनिहारिन को लगा, गये परदेस पिया का सांेच,
शरद भर बाँधा था जो धैर्य, आज वह छूटा अब छूटा,
अबोला टूटा अब टूटा, अबोला टूटा अब टूटा।
बाग के गेंदे और गुलाब, बना कर बैठे ऐसा रूप,
गाँव के अधनंगे शिशु ज्यों कि शिशिर में खाने बैठे धूप,
कंकरी-सी यह उपमा लगी, प्राण घट फूटा अब फूटा,
अबोला टूटा अब टूटा, अबोला टूटा अब टूटा।
वधू के वस्त्रों में है उषा, कुंकुमी हाथ हल्दिया अंग,
सती होती हो जैसे भोर तिमिर पति की अरथी के संग,
दृश्य पर जन-कोलाहल, बना गीति-स्वर रूठा अब रूठा,
अबोला टूटा अब टूटा, अबोला टूटा अब टूटा।