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फागुनी दोहे / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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निराभरण तन जर्जरित हुआ शिशिर का अन्त,
आया मधु का घट लिए सोने जड़ा वसन्त।

पिचकारी से किरण की बरसाती मधु धूप
हुआ और से और ही वनलक्ष्मी का यपं

तरुशाखाओं में जड़े नूतन किसलय जाल,
लिखे आलता से गए मानो अक्षर लाल।

आदि काव्य के छन्द से वन में खिले पलाश,
छके गन्ध मकरन्द से चम्पा खिले कपास।

मधुमय अरुण बिहान है, मधुमय सन्ध्याकाल,
सुलग रहा दिनकाल है, सुलग रहा निशिकाल।

फाड़ धरा का हिय-पटल उमड़ा छवि का ज्वार,
गया उकेरा शिल्प में प्रकृति-वधू का प्यार है।

उठा हिलोरों में लहर हृदय किनारे तोड़़,
उतरी सम पर व्यंजना भर झंकार मरोर।

कंठे पहने कुमकुमे वन-उपवन ने लाल,
सोने की लंका जली धधका मानो ज्वाला।

बौरानी-सी कोकिला आम्रविपिन को चीर,
जगा रही स्वर-तान से प्राण-प्राण में पीर।

चढ़े फूल के धनुष पर भरे गन्ध से तीर,
लगे उड़ाने राग से रँगे गुलाल अबीर।

फाग खेलता है भ्रमर नव मुकुलों के साथ,
मंजरियों के मौर से आम्रविटप नतमाथ।

लहर उठाता लहर में फागुन का यह काल,
फेंक मनोनभ पर रहा वशीकरण का जाल।