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फिर लौटा है ख़ुर्शेदे-जहांताब / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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फिर लौटा है ख़ुर्शेदे-जहांताब सफ़र से
फिर नूरे-सहर दस्तो-गरेबां है सहर से

फिर आग भड़कने लगी हर साजे-तरब में
फिर शोले लपकने लगे हर दीदा-ए-तर में

फिर निकला है दीवाना कोई फूंक के घर को
कुछ कहती है हर राह हर एक राहगुज़र से

वो रंग है इमसाल गुलिस्तां की फ़ज़ा का
ओझल हुई दीवारे-क़फ़स हद्दे-नज़र से

साग़र तो खनकते हैं शराब आये न आये
बादल तो गरजते हैं घटा बरसे न बरसे

पापोश की क्या फ़िक्र है, दस्तार संभालो
पायाब है जो मौज गुज़र जायेगी सर से