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फिर समूचा एक दिन बीता / रामकुमार कृषक
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फिर समूचा एक दिन बीता
रह गया आधा-अधूरा आदमी रीता
रोटियाँ-रुजगार
भागमभाग
झिड़कियाँ-झौं-झौं कई खटराग
हर समय हर पल लहू पीता
बन्द कमरों में
खुला आकाश
वाह ! क्या जीदारियत, शाबाश
बहस का मैदान तो जीता
कारखाने-खेत औ'
फुटपाथ
हाथ सबके साथ कितने हाथ
कह रही कुछ और भी गीता !
(रचनाकाल : 28.01.1979)