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फिर से / मनीष मूंदड़ा
Kavita Kosh से
साँसों की निरंतर आवाजाही
वही ंविचारो का अथक अंतहीन प्रजन्न
एकाकी की शाख पर बैठा मेरा मन
आज फिर सोच रहा था, किस राह मुड़े उस चौराहे से
लंबी थकान से दिशाहीन ये आँखे
नींदो के अभाव में थकी
अद्यपले सपनों में दबी ये आँखे
अब शायद फि र से चमक उठेंगी
क्या फिर से अश्रुपूरित होंगी ये आँखे?
फिर से सजेंगे इनमें सपने?
क्या फिर से जीवंत होंगी ये आँखे?
फि र आशाओं का स्वरूप ऊ भरा है
जिन उम्मीदों पर पड़ गई थी, व्यथा कि परतें
उन्हीं उम्मीदों का रंग फि र से निखरा है
अब उजाले हमें साफ नजर आयेंगे
रौशनी को फि र अपने घर लायेंगें
फिर से एक बार उम्मीदें तत्पर होंगी इनमें
फिर से विजयी होने को लालयित होंगी ये आँखे।