फिर से और एक बार
ढूँढ़ दूंगा वह आसन तुम्हारा
गोद में जिसकी बिछी है
विदेश की सम्मान वाणी।
अतीत के भागे हुए स्वप्न
फिर से आ करेंगे भीड़,
अस्फुट गुंजन के स्वर में
फिर से रच देंगे नीड़।
आ आकर सुख स्मृतियाँ करेंगी जागरण मधुर,
बाँसुरी जो नीरव हुई, लौटा लायेंगी उसका सुर।
बाहें रख वातायन में
वसन्त के सौरभ पथ में
महानिःशब्द की पदध्वनि
सुनाई देगी निशीथ जगत में।
विदेश के प्यार से जिस प्रेयसी ने बिछाया है आसन,
चिरकाल रखेगा बाँध कानों में उसी का भाषण।
भाषा जिसकी नहीं थी ज्ञात, आँखों ने ही की थी बात,
जगाये रखेंगी चिरकाल उसकी सकरुण बातें ही।
‘उदयन’
मध्याह्न: 6 अपै्रल, 1941