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फिर से गूँज उठी रणभेरी / बलबीर सिंह 'रंग'

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फिर से गूंज उठी रणभेरी

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शांत दृगों में धधक उठी फिर यहाँ क्रांति की ज्वाला ,

प्यासी धरती मांग उठी फिर हृदय-रक्त का प्याला .

समय स्वयं जपने बैठा फिर महा मृत्यु की माला,

इन्कलाब की बाट जोहता क्या अदना, क्या आला .

जनता के आवाहन पर नवयुग ने करवट फेरी .

फिर से गूंज उठी रणभेरी .


पूर्व आज स्वीकार कर उठा पश्चिम का रण-न्योता,

पराधीनता और स्वतंत्रता में कैसा समझौता ?

हमें राह से डिगा न सकते अरि के दमन सुधारे

आजादी या मौत यही बस दो प्रस्ताव हमारे .

शूर बांधते कफन शीश से, कायर करते देरी,

फिर से गूंज उठी रणभेरी .