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फिर से पढ़ने लगा है रूस / बरीस स्लूत्स्की
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फिर से पढ़ने लगा है रूस हमें
वह यों ही नहीं पलट रहा है पन्ने
बहरे इशारों को
फिर से समझने लगी हैं टेढ़ी नज़रें ।
फिर से गीत गाए जा रहे हैं लजार के
साफ़ और साफ़ सुनाई देने लगे हैं
अस्पताल और शिविरों के दुखभरे स्वर
भारी और बोझिल स्वर युद्ध के दिनों के ।
और जैसे बादलों का धुँधला-सा हिलना
रात के आकाश में
हमारे प्रति जग रहा है आदरभाव
और कान हो रहे हैं सम्वेदनशील आवाज़ों के प्रति ।