फीके फागुन का गीत / योगेन्द्र दत्त शर्मा
अब नहीं वे मोरपंखी दिन, न वह फागुन!
झर गये पत्ते शिखाओं से
किसी की गंधभीनी याद-से
फैले हुए सुनसान आंगन में;
दिवस की फुनगियों पर
थरथराहट अब नहीं होती हवाओं से;
खो गये वे दृश्य सिन्दूरी
किसी बीते हुए इतिहास के पन्नों-सरीखे
हिंस्र, नरभक्षी समय की दाढ़ में,
बस एक सन्नाटा बढ़ाता जा रहा
नाखून-पैने और तीखे;
झूलता है हर तरफ बस एक ही असगुन!
न अब वे मोरपंखी दिन, न वह फागुन!!
ओस की वह नभ छुअन गुम हो गईहै,
ज्यों किसी मेले-तमाशे में
अकेला शिशु कहीं पर खो गया हो;
गंध में डूबा हुआ मौसम नदारद,
हर तरफ बस एक मुर्दा-बोध
बस्ती पर हुआ हावी;
नहीं अब हीर-रांझा के प्रणय-उन्माद में,
उन्मत्त ज्वारों का समर्पण
शांत, गुमसुम बह रही रावी;
थिरकती अब नहीं कोई यहां पर धुन!
न अब वे मोरपंखी दिन, न वह फागुन!!
ढोलकों पर थाप देती
उंगलियां भी थक गई हैं,
टीस-सी उठती हथेली में,
मृदंगों में नहीं वह ताल का जादू,
न काफी और ठुमरी की बनी अनुगूंज,
अलगोजा सिसकता,
भग्न इकतारा किसी अवसाद से ऊबा हुआ है,
शंख का स्वर मौन में डूबा हुआ है,
टूटकर मंजीर कांसे बन गये;
पायल, घुंघरुओं में नहीं है शेष अब रुनझुन!
न अब वे मोरपंखी दिन, न वह फागुन!!
बैंजनी आकाश में तिरते हुए बादल गुलाबी
खो गये गहरे धुंधलकों में,
दहकते टेसुओं की आंच गायब,
अबीरी धूप की चादर हुई मैली,
गमकते गंध-वन में चांदनी की रेत उड़ती है,
न अब रतनार कमलों से उझककर
झांकती उद्भ्रांत रसवंती,
थकन की रागिनी में
रुंध गये हैं राग वासंती;
फफकते गुलमुहर, कुम्हला गई तुलसी,
फ्लाशों की उमगती भंगिमा झुलसी;
लगी अमराइयों में नागफनिया धुन!
न अब वे मोरपंखी दिन, न वह फागुन!!
-मार्च 1976