फुहार / आशा कुमार रस्तोगी
मेघों का यूँ प्यार लुटाना, अच्छा लगता है,
प्रकृति दिखे आतुर स्वागत को, अच्छा लगता है।
चपल, कौँध जाती बिजली, जो रह-रह कर,
टीस उभरती मन में, फिर भी, अच्छा लगता है।
धन्य हुई है धरा भीगकर, रिमझिम, मस्त फुहारों से,
हरा-भरा चहुँदिश, दिखना भी, अच्छा लगता है।
नव कोपल, दिग-दृग अनन्त, अमराई मेँ,
कोयल का यूँ, कूक सुनाना अच्छा लगता है।
मन्द-मन्द मदमस्त पवन, सुरभित पराग,
भ्रमर-वृन्द का गुन्जन करना, अच्छा लगता है।
पुष्पों के कानोँ में, मोहक तितली का,
हौले से कुछ, कह जाना भी, अच्छा लगता है।
मँत्र-मुग्ध करने आया, अद्भुत है नृत्य मयूरों का,
पपिहा का "पियू कहाँ" सुनाना, अच्छा लगता है।
इन्द्रधनुष ने छटा बिखेरी, अम्बर मेँ,
राग-मल्हार, श्रवण करना भी, अच्छा लगता है।
भले दिखे बोझिल, यौवन से, तरुणाई,
उर-पीड़ा का, भार उठाना, अच्छा लगता है।
भले वेदना, मन मेँ उनकी यादों की,
कभी-कभी पर, पीर छुपाना, अच्छा लगता है।
बिन आहट के, स्वप्नों मेँ आकर उनका,
प्रणय-गीत का, सार सुनाना, अच्छा लगता है।
बाट जोहते नयन, मिलन की "आशा" मेँ,
कभी-कभी पर, अश्रु बहाना, अच्छा लगता है...!