भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
फूटी कौड़ी नहीं जेब में / धीरज श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
फूटी कौड़ी नहीं जेब में
किससे ठग कर लाये अब ?
कैसे कटे गरीबी उसकी
कैसे काम चलाये अब ?
सुरसतिया भी नहीं डालती
उसको घास जरा कुछ भी !
मुँह बिचकाकर कह देती है
तुझमें नहीं धरा कुछ भी !
बिन पैसे के कहाँ जमाना
किससे मन बहलाये अब ?
दारू पीकर चौकीदारी
जाने कितने साल किया !
फूट गयी पर पोल एक दिन
कर्मों ने कंगाल किया !
हाथ नहीं रह गयी नौकरी
बैठा सिर खुजलाये अब।
बनिये ने की बंद उधारी
यार गये सब भूल उसे !
देख दशा हँस रहे पड़ोसी
रोग चुभे बन शूल उसे !
झूठ - मूठ किस्मत पर अपनी
बस केवल झल्लाये अब।