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फूल काँच मुर्गा वगैरह / अवधेश कुमार
Kavita Kosh से
डाली से टूटने के बाद यह फूल
इतने दिन तक खिला रहा ।
टूटने के बाद ज़रा भी नहीं खिला मैं ।
काँच के ऊपर इतनी धूल जमने के बाद भी
चमक ज्यों की त्यों बनी रही काँच पर
अपनी धूल झाड़ने के बाद भी मैं रद्दी हो गया।
गर्दन कट जाने के बाद भी मुर्गा दौड़ता रहा
अकड़ के साथ ख़ून के फौव्वारे छोड़ता हुआ
इस बन्द कमरे में।
लिखे जाने से पहले शब्द कितने स्वतन्त्र थे
लिखे जाने के तुरन्त बाद वे मेरी बात की मृत्यु हो गए ।
चुपचाप मैं कोशिश करने लगा बनने की फूल
काँच, मुर्गा और शब्द वगैरह : कोई मरी हुई
चीज़ ताज़ी ; आज़ाद रहे बहुत देर तक
रहे बहुत देर तक मरने के बाद भी ।