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फूल के अधरों पे / ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

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फूल के अधरों पे पत्थर रख दिया
गंध को काँटों के अंदर रख दिया
यों नए उपचार अज़माए गए
ज़ख़्म को मरहम के ऊपर रख दिया
धार के तेवर परखने के लिए
अपने ही सीने पे खंजर रख दिया
अंध बाज़ारीकरण के दौर ने
घर को दरवाज़े से बाहर रख दिया
यह खुलापन तो दुशासन हो गया
ज़िंदगी का चीर हरकर रख दिया
जब बदल पाए न बेढ़ब सूरतें
आइनों को ही बदलकर रख दिया
क्या अजब भाषा है दुनिया की 'पराग'
राहजन का नाम रहबर रख दिया!