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फूलबानो का कूबड़पन... / हुकम ठाकुर

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फूलबानो के कूबड़पन
और बकसाड़ी की चढ़ाई के बारे में
कविता करना उतना ही मुश्किल है
जितना लहरदार पानी में
अपने चेहरे की बारीकियों को देखना

गन्ध फूल में होती है कि जड़ में
और चाँदनी की झूलती टहनियों के बारे में
दरपन को अन्तिम चिट्ठी लिखना
उतना ही मुश्किल है
जितना बस्ती की नींदों की गरमाहट में से
एक ठण्डी और ताजा पगडण्डी को ढूँढ़ना

जंगल में पेड़ कटने
और कुल्हाड़ी के ऊँघते हुए क़िस्सों के बारे में
हरी पतियों से बात करना उतना ही दिलचस्प है
जितना घड़ी की सुइयों से कहना
जल्दी करो वरना शाम ढल जाएगी

बूढ़े गड़रिए के मोरपंखी सपने
और मेमने की धमा-चौकड़ी के बारे में
ज़िद्दी गिद्धों से उनकी चाल पूछना
उतना ही बेमानी है
जितना खिड़की पर रखी प्याली में झाँक कर बताना
कि खोए हुऐ इतिहासों का चेहरा कैसा है।

ब्यास में बहकर आते काठ-कबाड़
और पहाड़ पर बादल फटने के बारे में
सूर्यास्त देखती आँखों से पूछ कर बताना
उतना ही असंगत है
जितना साथ चलते उस आदमी की पहचान बताना
जो आपको नमस्कार कहे और भीड़ में गुम हो जाए

गला काटने की प्रतियोगिता
और सड़क पर खुलते द्वार के बारे में
बन्द गलियों से बतियाना उतना ही निष्फल है
जितना हवा से पूछकर बताना
कि वे पन्नों पर लिखे हुए नाम
उड़ कर किधर गिरे हैं

बण्डल होते सेब के किरमिज़ीपन
और आश्विन की लम्बी होती रातों के बारे में
खिड़की से लटकती चँद्रमा की टिकड़ी से बात करना
उतना ही निरर्थक है
जितना सूखे खेतों से पूछना
अब की बार बरसात कैसी रहेगी

अढ़ाई मन लोहे की हेरन
और उस पर पड़ती हथौड़े की चोट के बारे में
लोहार की फूँकनी से बात करना
उतना ही अर्थहीन है
जितना डाक्टर के चाकू से पूछ कर बताना
कि लहू और आँख के पानी में से
कौन अधिक खारा है

गर्क होते शब्दों की चतुर निगाहों
और पृथ्वी की अन्तिम कविता के बारे में
शब्दकोश की कालोनियों को खंगालना
उतना ही सम्वेदनहीन होगा
जितना लालटेन की रोशनी में तैरती परछाई से पूछना --
तुम्हारे पैर किस जगह पर टिके हैं।