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बंधु! ज़रूरी है / रामगोपाल 'रुद्र'

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बन्‍धु! ज़रूरी है मुझको घर लौटना,
एक मुझे भी ले लो अपनी नाव पर।

देर तनिक हो गई वहाँ, बाज़ार में,
मोल-तोल के भाव और व्यवहार में;
आईना था एक अनोखी आब का,
इन्‍द्रजाल-सा था जिसके दीदार में;
मैं गरीब ले सका न अपने भाव पर।

सनक नहीं तो क्या कहिए, इस ठाट को
कौड़ी लेकर साथ, चला था हाट को,
जहाँ प्रसाधन बिकते हैं शृंगार के!
कौन पूछता मुझ-जैसे बेघाट को?
पड़ता रहा नमक ही मेरे घाव पर!

हल्का हूँ, कुछ ख़ास न हूँगा भार मैं,
निर्धन हूँ, दे सकता हूँ, बस, प्यार मैं;
गीत सुनाऊँगा मीरा के, सूर के;
ले लेना, जो पाऊँगा दो-चार मैं;
कृपा करो अब, सिर धरता हूँ पाँव पर।